Friday, December 8, 2023
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अब यादें शेष : बीजेपी के कमंडल और मंडल का संगम थे कल्याण सिंह

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भारतीय जनता पार्टी का कल्याणकारी चेहरा ढह गया – बीजेपी के आज के स्वरूप के बीच कल्याण सिंह को इस तरह भी याद किया जा सकता है. लेकिन इस रूप में याद करने के लिए हमें थोड़े पुराने संदर्भों को ताजा करने की भी जरूरत है. याद करें कि 1980 में जनता पार्टी से अलग होने के बाद भारतीय जनता पार्टी के रूप में जनसंघ का जो नया अवतार सामने आया, उसने दीये की जगह कमल को अपना चिह्न बनाया और अपने लिए एक नया नारा चुना – गांधीवादी समाजवाद. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली बीजेपी उस वक्त अपने आप को राजनीतिक बियाबान में पा रही थी. 1984 के आम चुनाव में बीजेपी को लोकसभा की सिर्फ दो सीटें मिलीं और उसके तमाम बड़े नेता चुनाव हार गए. इसी के साथ बीजेपी का गांधीवादी समाजवाद भी पीछे छूट गया. इसके बाद बीजेपी ने कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टीकरण के पुराने जनसंघी आरोप को एक बार फिर सेअपनी संजीवनी की तरह इस्तेमाल करना शुरू किया.

संयोग से 1986-87 में उसे दो बड़े मुद्दे मिले. एक तो शाहबानो का, जिसमें तलाकशुदा मुस्लिम महिला के गुजारे को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने संविधान में संशोधन किया. इसके अलावा 1987 में कांग्रेस द्वारा अयोध्या के विवादित राम मंदिर का ताला खुलवाने से बीजेपी को रामबाण मिल गया. उसने पूरे नाटकीय ढंग से इस मुद्दे का दोहन किया. राम मंदिर निर्माण के यज्ञ चले, रामनामी ईंटें मंगाई जाने लगीं और बाबरी मस्जिद को गिराकर राम मंदिर बनाए जाने की घोषणाएं बीजेपी को जीवन व पोषण देती रहीं.

1989 के आम चुनाव में उसे इसका प्रत्यक्ष लाभ मिला और पार्टी दो सीटों से उछलकर 86 सीटों पर चली आई. उस समय विश्वनाथ प्रतापसिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार बनी, जिसे एक तरफ से वाममोर्चे ने समर्थन दिया, दूसरी तरफ से बीजेपी ने. लेकिन यह दोस्ती बहुत दिनों तक कायम नहीं रह सकी. 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने के विश्वनाथ प्रताप सिंह के ऐलान के बाद लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी रथयात्रा शुरू की. रथयात्रा ने तो बीजेपी की राजनीति का भावी चेहरा दिखाया पर इसी समय बीजेपी की नींव बनाने का काम कल्याण सिंह ने किया.

गोविंदाचार्य ने मंडल के खिलाफ भाजपा को सोशल इंजीनियरिंग का मंत्र दिया. इस समय तक भाजपा की राजनीति जनसंघ की लीक पर ही चल रही थी. इसकी पहचान में पिछड़ी जाति की नुमाइंदगी नहीं दिखती थी. और जब मंडल आयोग के जरिए पिछड़े वर्ग की जातियों को कैटिगरी में बांटा जाने लगा और पिछड़ा वर्ग की ताकत सियासत में पहचान बनाने लगी, तब एक बार तो भाजपा को भी लगा कि उसके बालपन में यह इतना ऊंचा स्पीड ब्रेकर आ गया है. ऐसे में भाजपा के लिए संकटमोचक चेहरा बनकर उभरे कल्याण सिंह. गोविंदाचार्य का मंत्र ही था कि कमंडल में मंडल को मिला लो. तब बीजेपी के कमंडल से कल्याण सिंह का मुख’मंडल’ निकला. भाजपा शुरू से ही बनिया और ब्राह्मण पार्टी वाली पहचान रखती थी. इस छवि को बदलने के लिए भाजपा ने पिछड़ों का चेहरा कल्याण सिंह को बनाया और तब गुड गवर्नेंस के जरिए मंडल वाली सियासत पर कमंडल का पानी फेर दिया.

कल्याण सिंह का बीजेपी से नाता बहुत सीधा-सपाट नहीं रहा. इसीलिए वे बीजेपी में आते-जाते रहे. हालांकि जिस हिंदुत्व की राजनीति के बल पर भाजपा आज देश की सबसे कद्दावर पार्टी बनी हुई है, उसकी नींव 6 दिसंबर 1992 में रखी गई दिखती है. उस वक्त उत्तर प्रदेश में बतौर मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ही थे. लेकिन इस विवादास्पद ढांचा के गिरा दिए जाने के बाद कल्याण सिंह को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का पद छोड़ना पड़ गया था.

यह सही है कि यूपी की राजनीति में कल्याण सिंह की तूती बोलती थी. पर 1999 जब उन्होंने भाजपा के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी की सार्वजनिक आलोचना की तो पार्टी ने उन्हें निकाल बाहर किया. तब अपने कद का इस्तेमाल करते हुए कल्याण सिंह ने अपनी अलग राष्ट्रीय जन क्रांति पार्टी बनाई और साल 2002 में विधानसभा चुनाव में भी शामिल हुए. 2003 में वह समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन सरकार में शामिल हो गए थे. उनके बेटे राजवीर सिंह और सहायक कुसुम राय को सरकार में महत्वपूर्ण विभाग भी मिले. लेकिन, कल्याण की मुलायम से ये दोस्ती अधिक दिनों तक नहीं चली. 2004 के चुनावों से ठीक पहले कल्याण सिंह फिर बीजेपी के साथ आ गए. और बीजेपी ने 2007 का यूपी विधानसभा चुनाव कल्याण सिंह के नेतृत्व में लड़ा, मगर सीटें बढ़ने की जगह घट गईं. 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान कल्याण सिंह फिर से सपाई हो गए. बीजेपी के खिलाफ उन्होंने बहुत-कुछ कहा. बीजेपी के कद्दावर नेताओं और उनकी नीतियों की आलोचना करते रहे. लेकिन अब तक भारतीय राजनीति में कई परिवर्तन हो चुके थे. किसी पार्टी से जुड़े रहने के लिए वैचारिकता को तिलांजलि दी जा चुकी थी, नेता अपने अवसर और लाभ की तलाश में उछल-कूद करने लगे थे और पार्टियां अपने लाभ के लिए इन उछल-कूदों को प्रश्रय देने लगी थीं. तो इस तरह एक बार फिर से कल्याण सिंह 2012 में बीजेपी में लौट आए. 2014 में उन्हें राजस्थान का राज्यपाल नियुक्त कर दिया गया. फिर उन्हें हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल का भी अतिरिक्त प्रभार दिया गया.

कल्याण सिंह के इस राजनीतिक सफर में यह दिखता है कि उन्होंने भले अपना कल्याण किया हो या नहीं, लेकिन भाजपा के लिए पिछड़ी राजनीति में जो जगह बनी है, उसकी ठोस बुनियाद कल्याण सिंह ने ही रखी थी. कहा जा सकता है कि बीजेपी के लिए कल्याण सिंह महज नाम नहीं बल्कि कल्याणकारी शख्सीयत भी रहे.

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